Vikram betal 20vi kahani में राजा चन्द्रवलोक ने shadi की और जंगल में पीपल के वृक्ष के नीचे पत्नी सहित रात वितायी, राक्षस नाराज हुआ उसने राजा को क्षमादान देने के एवज में भोजन के लिए 7 साल का बालक माँगा । मृत्यु के समय बालक क्यों हँसा यह vikram betal की इस 20वीं कहानी में जानिए।
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राजा विक्रमादित्य ने शिंशपा के पेड़ के नीचे जाकर फिर से बेताल को अपने कंधे पर उठाया और अपनी मंजिल की ओर चल दिए। रास्ते में बेताल ने फिर राजा से कहा, “राजन! यह आपका कैसा दृढ़ निश्चय है? आप जाइए, राज-पाठ का सुख भोगिए। आप मुझे उस दुष्ट भिक्षु के पास ले जा रहे हैं, यह ठीक नहीं है। लेकिन अगर आपका यही आग्रह है कि मै उसके पास चालू , तो मेरी ये कहानी सुनिए।” और शर्त हमारी पूर्ववत है।
आर्यावर्त में एक नगर था जिसका नाम चित्रकूट था, जो अपने नाम को सार्थक करता था। वहाँ के लोग वर्ण-व्यवस्था की सीमा का उल्लंघन नहीं करते थे, यानी सभी वर्गों के लोग अपनी मर्यादा में रहकर ही अपना-अपना काम करते थे। उस नगर में चंद्रावलोक नाम का एक राजा राज्य करता था। वह राजा बहुत धीर, वीर, गंभीर और महान योद्धा था। उसकी शूरवीरता की कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी।
लेकिन जैसा कि कहा जाता है, हर व्यक्ति को उसकी सभी इच्छित वस्तुएँ कभी नहीं मिलतीं। इसी प्रकार, सभी संपत्ति होने के बावजूद राजा चंद्रावलोक इस बात से बहुत दुखी रहता था कि उसे अपनी पसंद की पत्नी नहीं मिली थी।
एक दिन वह अपने मन का दुख मिटाने के लिए अपने अनुचरों के साथ घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में गया। वहाँ उसने कई क्रूर हिंसक पशुओं का शिकार किया। एक सिंह का शिकार करने की इच्छा से वह अकेला ही उस घने वन में घुस गया। वहाँ उसने एक हृष्ट-पुष्ट और विशाल सिंह को देखा, तो लगा जैसे उसका लक्ष्य उसे मिल गया हो। उसने सिंह की ओर कई अचूक तीर छोड़े। उनमें से एक तीर सिंह को जा लगा और वह घबराकर घने जंगल की ओर भाग गया। राजा ने भी अपने घोड़े को एड़ लगाई ताकि वह जल्दी से उस सिंह के पास पहुँचकर उसका वध कर सके।
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किंतु एड़ कुछ ज़्यादा ही लग गई। उसका घोड़ा राजा के पाँव की एड़ और चाबुक की फटकार सुनकर बहुत उत्तेजित हो उठा। सम और विषम भूमि का ध्यान छोड़कर वह वायु-वेग जैसी तेज़ी से दौड़ता हुआ राजा को वहाँ से दस योजन दूर एक दूसरे प्रदेश में ले आया। वहाँ पहुँचकर जब घोड़ा रुका, तब राजा को दिशा-भ्रम हो गया। वह किसी प्रकार घोड़े से उतरा और सही दिशा पाने के लिए इधर-उधर भटकने लगा। तभी उसकी नज़र कुछ आगे एक विशाल सरोवर पर पड़ी।
उस सरोवर में कमल खिले हुए थे और भाँति-भाँति के जलचर उसमें तैरते दिखाई दे रहे थे। सरोवर के किनारे पहुँचकर राजा ने अपने घोड़े की जीन खोल दी। पहले उसने घोड़े को पानी पिलाया और खुला छोड़ दिया ताकि वह घास चरकर अपना पेट भर सके। फिर स्वयं स्नान करके जल पिया। यहाँ पढ़िए vikram betal की 19 वीं कहानी
थकावट दूर होने पर वह उस रमणीय स्थान में इधर-उधर देखने लगा। तभी उसकी नज़र एक अशोक वृक्ष के नीचे अपनी सखी के साथ बैठी एक मुनि-कन्या पर पड़ी। उसने फूलों के गहने और वल्कल वस्त्र पहने हुए थे। प्राकृतिक श्रृंगार से वह बहुत मनोरम लग रही थी। राजा उसके रूप को देखकर मोहित हो गया। उसने मन में सोचा, “अरे, यह कौन है? क्या यह कोई दूसरी सावित्री है जो सरोवर में स्नान करने आई है या शिव की गोद से छूटी पार्वती है जो फिर भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या करने आई है? अथवा यह दिन में अस्त हुए चंद्रमा की कांति है, जिसने व्रत धारण कर रखा है। तो मैं धीरे-धीरे इसके पास जाकर वरदान प्राप्त करूँ।”
ऐसा सोचकर वह राजा उस कन्या के पास पहुँचा। उस कन्या ने भी जब राजा को अपने पास आते देखा तो उसकी आँखों में चमक आ गई। फूलों की माला गूंथते उसके हाथ अचानक ही रुक गए। वह सोचने लगी, ‘ऐसे विकट वन में आने वाला यह पुरुष कौन है? कोई विद्याधर है या कोई सिद्ध? इसका रूप तो मेरी आँखों को चकाचौंध किए दे रहा है।’ मन-ही-मन ऐसा सोचकर लज्जा के कारण तिरछी नज़रों से देखती हुई, वह उठ खड़ी हुई। यद्यपि उसके पाँव जकड़ से गए थे तथापि वह जाने को तैयार हुई। आप पढ़ रहे है Vikram betal 20vi kahani जिसमे राजा को प्रेम उत्पन्न हो गया |
तब चतुर और विनम्र राजा उसके पास पहुँचा और बोला, “सुंदरी! जो व्यक्ति दूर से आया है, जिसे तुमने पहली बार देखा है और जो तुम्हारा दर्शन मात्र चाहता है, उसके स्वागत-सत्कार का तुम आश्रम वासियों का यह कैसा ढंग है कि तुम उससे दूर भागी जा रही हो?”
राजा के ऐसा कहने पर उस कन्या की सखी ने, जो राजा के समान ही चतुर थी, राजा को वहाँ बिठाया और उसका आतिथ्य सत्कार किया। उत्सुक राजा ने विनम्र स्वर में पूछा, “भद्रे! तुम्हारी इस सखी ने किस पुण्यवान वंश को अलंकृत किया है? इसके नाम के वे कौन से अक्षर हैं, जो कानों में अमृत उड़ेलते हैं? और इस निर्जन वन में, पुष्प के समान कोमल अपने शरीर को तपस्वियों जैसी दिनचर्या से क्यों कष्ट दे रही है?”
राजा की ये बातें सुनकर उसकी सखी ने उत्तर दिया, “श्रीमंत! यह महर्षि कण्व की पुत्री इंदीवर प्रभा है। यह आश्रम में ही पाली-पोसी गई है। इसकी माता स्वर्ग की अप्सरा मेनका है। पिता की आज्ञा से यह इस सरोवर पर स्नान करने के लिए आई है। इसके पिता का आश्रम यहाँ से अधिक दूर नहीं है।”
राजा यह बातें सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और घोड़े पर सवार होकर उस कन्या का हाथ मांगने के लिए कण्व ऋषि के आश्रम में पहुँचा। यहाँ पहुँचकर राजा ने मुनि के चरणों की वंदना की। मुनि ने भी उसका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। उसे विश्राम करने के लिए उचित स्थान दिया। जब राजा विश्राम कर चुका तो मुनि ने उससे कहा, “हे चंद्रावलोक! तुम मेरी एक बात ध्यानपूर्वक सुनो।
इस संसार में प्राणियों को मृत्यु से जैसा भय है, उसे तुम भली-भांति जानते हो, फिर भी तुम अकारण ही इन बेचारे मृगों की हत्या क्यों करते हो? विधाता ने क्षत्रियों का निर्माण तो दुर्जनों से सज्जनों की रक्षा के लिए किया है अतः तुम धर्मपूर्वक राजसुख का भोग करो। हे राजन! तुम स्वयं ही सोचो कि निर्बल निरीह पशुओं का वध करने से आखिर लाभ ही क्या है? हे राजा चंद्रावलोक! क्या तुमने राजा पांडु का वृत्तांत नहीं सुना जिन्हें इसी शौक के कारण शापवश अपने प्राण त्यागने पड़े थे। इसीलिए मैं तुम्हें समझा रहा हूँ कि मृगया (आखेट) के बहाने पर निरीह पशुओं का शिकार करना तुरंत बंद कर दो।”
मुनि के बार-बार ऐसा समझाने का राजा के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसने मुनि से कहा, “हे मुनिश्रेष्ठ! आज से पहले किसी ने मुझे इस प्रकार समझाने की चेष्टा नहीं की थी इसीलिए अज्ञानवश मैं ऐसा करता रहा। किंतु मैं वचन देता हूँ कि आज के बाद फिर कभी मृगया करने का विचार मन में नहीं लाऊँगा। आज के बाद मेरी ओर से सभी वन-प्राणी अभय हैं।”
राजा विक्रमादित्य Vikram betal 20vi kahani में अभी तक अपने पढ़ा कि प्रेम पाने का लिए राज चंद्रावलोक ने वन्य प्राणियों का शिकार करना छोड़ दिया अब आगे पढ़े
यह सुनकर मुनि ने कहा, “राजन! तुमने वन-प्राणियों को अभयदान दिया, इससे मैं बहुत संतुष्ट हुआ हूँ। अतः तुम मुझसे कोई इच्छित वर माँगो।” मुनि के ऐसा कहने पर समय को जानने वाले राजा चंद्रावलोक ने कहा, “हे मुनिवर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप अपनी कन्या इंदीवर प्रभा को मुझे दें।” राजा के इस प्रकार याचना करने पर मुनि ने अपनी वह कन्या राजा को दे दी, जिसका जन्म एक अप्सरा की कोख से हुआ था और जो सिर्फ राजा के ही योग्य थी।
इसके बाद, उसके साथ विवाह करके राजा वहाँ से चलने को तैयार हुआ। आश्रम के समस्त मुनिकुमार आँखों में आँसू लिए उन्हें आश्रम की सीमा तक पहुँचा आए। जब राजा ने मुनि कण्व और उनके शिष्यों से विदा ली, तब सूर्यास्त होने को ही था। रास्ते में चलते हुए उन्हें रात्रि हो गई लेकिन राजा फिर भी चलता ही रहा। एक स्थान पर रुककर राजा ने रास्ते में एक पीपल का वृक्ष देखा। तब राजा ने सोचा कि रात्रि में वहीं विश्राम करना चाहिए। यही सोचकर वह वहीं घोड़े से उतर पड़ा। उस रात वह राजा वहाँ उस मुनिकन्या के साथ फूलों की शय्या पर सोया।
Vikram betal 20vi kahani में सुबह जब वह अपने नगर की ओर चलने को हुआ तो अचानक एक ब्रह्मराक्षस से उसका सामना हो गया। उस राक्षस का विकराल शरीर देखकर राजा की पत्नी, वह मुनिकन्या सिहर उठी। वह राक्षस काजल के समान काला था और कालमेघ के समान प्रतीत होता था। उसने अंतड़ियों की माला पहन रखी थी। उस समय वह किसी मनुष्य का मांस खा रहा था और उसकी खोपड़ी का रक्त पी रहा था। क्रोध के कारण उसके मुख से अग्नि-सी निकल रही थी।
उसकी आँखें बड़ी भयानक थीं। प्रचंड अट्टहास करके, राजा का तिरस्कार करते हुए वह बोला, “अरे नीच, मैं ज्वालामुखी नाम का राक्षस हूँ। पीपल का वह वृक्ष मेरा निवास-स्थान है। देवता भी इसकी अवमानना नहीं कर सकते। मैं रात को जब घूमने-फिरने गया, तभी तूने यहाँ रात बिताई। अब तू इस अविनय का फल भोग। अरे दुराचारी, वासना से तेरी सुध-बुध जाती रही है। मैं तेरा हृदय निकालकर खाऊँगा और तेरा रुधिर पी जाऊँगा।”
राजा ने ब्रह्मराक्षस की बातें सुनीं। ब्रह्मराक्षस बड़ा भयानक था। राजा ने महसूस किया कि उसे मार डालना किसी भी प्रकार संभव नहीं है, अतः उसने विनयपूर्वक कहा, “अनजाने में मुझसे जो अपराध हुआ है, आप उसे क्षमा कर दें। मैं आपके आश्रय में आया हुआ अतिथि हूँ, आपकी शरण में हूँ। मैं आपको मनचाहा आखेट ला दूँगा जिससे आपकी तृप्ति हो जाएगी। अतः क्रोध त्यागकर आप प्रसन्न हों।”
ब्रम्हराक्षस ने Vikram betal 20vi kahani में शर्त रखी कि –
राजा की बातें सुनकर राक्षस कुछ शांत हुआ और उससे बोला, “अगर तुम सात दिनों के अंदर मुझे किसी ऐसे ब्राह्मण-पुत्र की भेंट लाकर दो जो सात वर्ष का होने पर भी बड़ा वीर हो, विवेकी हो और अपनी इच्छा से तुम्हारे लिए अपने को दे सके और जब वह मारा जाए तो भूमि पर डालकर उसकी माता उसके हाथ और पिता उसके पाँव मज़बूती से पकड़े रहें तथा तलवार के प्रहार से तुम्हीं उसे मारो तो मैं तुम्हारे इस अपराध को क्षमा कर दूँगा, नहीं तो राजन मैं शीघ्र ही तुम्हें और तुम्हारे लश्कर को मार डालूँगा।”
प्राण जाने के भय से राजा ने तुरंत उसकी शर्त स्वीकार कर ली। तब वह ब्रह्मराक्षस तत्काल वहाँ से अंतर्ध्यान हो गया। राजा अपनी पत्नी को लिए घोड़े पर सवार होकर आगे चल दिया लेकिन उसका मन बहुत उदास था। वह सोचने लगा, “मैं भी कैसा पागल हूँ जो उस ब्रह्मराक्षस की शर्त मान ली। भला वैसा उपहार मुझे मिलेगा भी कहाँ? मैंने प्राण जाने के भय से व्यर्थ ही उस राक्षस की शर्त स्वीकार की। इससे तो बेहतर था कि वह मुझे ही अपना आहार बना लेता। अब मैं अपने नगर को चलूँ और देखूँ कि होनहार क्या है?”
राजा ऐसा ही कुछ सोचता जा रहा था कि उसकी सेना उसे खोजती हुई वहाँ पहुँच गई। तब वह अपनी सेना व अपनी पत्नी के साथ अपने नगर चित्रकूट में आया। राजा को उसके अनुकूल पत्नी मिली है, यह जानकर राजधानी में उत्सव मनाया गया लेकिन मन का दुख मन में ही दबाए हुए राजा ने बाकी दिन बिता दिए।
अगले दिन एकांत में उसने अपने मंत्रियों से सारा वृत्तांत कह सुनाया। सुनकर उनमें से सुमति नामक एक मंत्री ने कहा, “राजन, आप चिंता न करें, मैं वैसा ही उपहार खोजकर ला दूँगा क्योंकि यह धरती अनेक आश्चर्यों से भरी पड़ी है।” राजा को इस प्रकार आश्वासन देकर उस मंत्री ने शीघ्र ही सात वर्ष की उम्र वाले एक बालक की मूर्ति बनवाई। उसने मूर्ति को रत्न से सजाकर एक पालकी में बिठा दिया।
फिर वह पालकी इस घोषणा के साथ अनेक नगरी, गाँवों में जहाँ-तहाँ घुमाई गई— ‘सात वर्ष का एक ब्राह्मण पुत्र, जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए अपनी इच्छा से अपना शरीर एक ब्रह्मराक्षस को सौंपेगा और इस कार्य में वह न केवल अपने माता-पिता की अनुमति ही ले लेगा, बल्कि जब वह मारा जाएगा तब स्वयं उसके माता-पिता उसके हाथ-पैर पकड़े रहेंगे। अपने माता-पिता की भलाई चाहने वाले ऐसे बालक को राजा सौ गाँवों के साथ यह सोने और रत्नों से जड़ी मूर्ति भी दे देंगे।’
इस प्रकार जब बालक की वह मूर्ति घुमाई जा रही थी, तब एक ब्राह्मण-पुत्र ने यह घोषणा सुनी। वह बालक बड़ा वीर और अद्भुत आकृति वाला था। पूर्वजन्म के अभ्यास से वह बचपन से ही सदा परोपकार में लगा रहता था। ऐसा जान पड़ता था मानो प्रजा के पुण्य फल ने ही उसके रूप में शरीर धारण कर रखा हो। ढिंढोरा पीटने वालों के पास जाकर उसने कहा, “प्रजा के हित में मैं अपने को अर्पित करूँगा। मैं अपने माता-पिता को समझाकर अभी आता हूँ।” उसकी यह बातें सुनकर ढिंढोरा पीटने वाले प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे अनुमति दे दी।
घर जाकर बालक ने हाथ जोड़कर अपने माता-पिता से कहा, “समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए मैं अपना यह नश्वर शरीर दे रहा हूँ। अतः आप लोग मुझे आज्ञा दें और इस प्रकार अपनी दरिद्रता का भी अंत करें। इसके लिए यहाँ के राजा सौ गाँवों सहित सोने और रत्नों वाली मेरी यह प्रतिकृति (मूर्ति) मुझे देंगे, जिसे मैं आप लोगों को सौंप दूँगा। हे पिताश्री, तब मैं आप लोगों से भी उऋण हो जाऊँगा और पराया कार्य भी सिद्ध कर सकूँगा। दरिद्रता से छुटकारा पाकर आप भी अनेक पुत्र प्राप्त कर सकेंगे।”
पुत्र की यह बातें सुनकर उसके माता-पिता ने कहा, “बेटा! क्या तू पागल हो गया है जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कह रहा है? भला धन के लिए कौन अपने पुत्र की हत्या करना चाहेगा और कौन बालक अपना शरीर देना चाहेगा?” माता-पिता की यह बातें सुनकर उस बालक ने फिर कहा, “पिताश्री, न तो मेरी बुद्धि नष्ट हुई है और न ही मैं कोई प्रलाप कर रहा हूँ। अतः आप मेरी अर्थयुक्त बातें सुनिए। मानव का यह शरीर अपवित्र वस्तुओं से भरा है। जन्म से ही यह जुगुप्सित (व्याधियों का घर) है। अतः शीघ्र ही इसे नष्ट हो जाना है। इसलिए बुद्धिमान लोगों का कहना है कि इस क्षणभंगुर शरीर से संसार में जितना भी पुण्य उपार्जित किया जा सके, वही सार वस्तु है। हे पिताश्री, समस्त प्राणियों का उपकार करने से बड़ा और कौन-सा पुण्य हो सकता है? और उसमें भी अगर माता-पिता की भक्ति हो तो देह धारण करने का अधिक फल और क्या होगा?”
इस तरह की बातें कहकर उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक ने शोक करते हुए अपने माता-पिता से अपनी मनचाही बात स्वीकार करा ली। फिर वह राजा के सेवकों के पास गया और वह सुवर्णमूर्ति तथा उसके साथ सौ गाँवों का दानपत्र लाकर अपने माता-पिता को दे दिया। इसके पश्चात् उन राजसेवकों को आगे करके अपने माता-पिता के साथ वह शीघ्रतापूर्वक राजा के साथ चित्रकूट की ओर चल पड़ा।
चित्रकूट में जब राजा चंद्रावलोक ने अखंडित तेज वाले उस बालक को देखा, तब वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने फूलों और चंदन के लेप से बालक को सजाया और उसे हाथी की पीठ पर बैठाकर, उसके माता-पिता के साथ उस ब्रह्मराक्षस के स्थान पर ले गया। उस पीपल के वृक्ष के निकट वेदी बनाकर राजा के पुरोहित ने विधिपूर्वक जैसे ही अग्नि में आहुति डाली, त्योंही अट्टहास करता हुआ, मंत्र पढ़ता हुआ, वह ब्रह्मराक्षस प्रकट हुआ। लाल रंग की मदिरा पीने के कारण उन्मत्त होकर वह झूम रहा था, जम्हाइयाँ ले रहा था और तेज़ी से साँसें छोड़ रहा था। उसकी आँखें जल रही थीं, मुख से ज्वाला निकल रही थी और उसके शरीर की छाया से दिशाओं में अंधकार-सा फैला प्रतीत होने लगा था।
राजा चंद्रावलोक ने उसे देखकर नम्रतापूर्वक कहा, “भगवन्, आज मेरी प्रतिज्ञा का सातवाँ दिन है। अपने वचन के अनुसार मैं यह मानव उपहार आपके लिए लाया हूँ। अतः आप प्रसन्न होकर विधिपूर्वक उसे ग्रहण करें।” राजा के इस प्रकार निवेदन करने पर ब्रह्मराक्षस ने अपनी जीभ से होंठों के किनारों को चाटते हुए उस ब्राह्मण बालक की ओर देखा। यह देखकर भी वह बालक तनिक भी नहीं डरा बल्कि यही सोचने लगा कि ‘इस प्रकार अपने शरीर का दान करके मैंने जो पुण्य अर्जित किया है, उससे मुझे ऐसा स्वर्ग अथवा मोक्ष नहीं मिलना चाहिए जिससे दूसरों का उपकार न होता हो, बल्कि जन्म-जन्मांतर में मेरा यह शरीर परोपकार के काम में ही आए।’
Vikram betal 20vi kahani में मृत्यु में मुँह में होते हुए भी 7 साल का बालक क्यों हँसा अब यह जानिए-
ज्योंही ही उसने मन में ये बातें सोचीं, त्योंही क्षण भर में फूल बरसाते हुए देवसमूह के विमानों से आकाश भर गया। इसके बाद, उस बालक को ब्रह्मराक्षस के सम्मुख लाया गया। माँ ने उसके हाथ पकड़े और पिता ने पैर। इसके बाद ज्योंही राजा तलवार उठाकर उसे मारने चला, त्योंही उस बालक ने ऐसा अट्टहास किया कि ब्रह्मराक्षस सहित सब लोग विस्मय में पड़ गए। अपना-अपना काम छोड़कर हाथ जोड़कर वे उस बालक का मुँह देखने लगे।
इस प्रकार, यह विचित्र और सरस कथा सुनाकर बेताल ने फिर राजा विक्रमादित्य से पूछा, “राजन! अब तुम मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो कि प्राणान्त के ऐसे समय में भी यह बालक क्यों हँसा था? मुझे इस बात का बहुत कौतूहल है। जानते हुए भी यदि तुम इसका कारण नहीं बताओगे तो तुम्हारा सिर खंड-खंड होकर बिखर जाएगा।”
बेताल की यह बात सुनकर राजा ने कुछ इस प्रकार उसका निराकरण किया, “हे बेताल! जो प्राणी दुर्बल होता है, वह भय के उपस्थित होने पर अपने प्राणों की रक्षा के लिए अपने माता-पिता को पुकारता है। उनके न होने पर राजा को पुकारता है क्योंकि आर्तजनों की रक्षा के लिए ही तो राजा बनाए जाते हैं। यदि उसे राजा का भी सहारा नहीं मिलता तो फिर वह अपने कुलदेवता का स्मरण करता है। उस बालक के तो सभी सहायक वहाँ उपस्थित थे लेकिन वे सब-के-सब प्रतिकूल हो गए थे। माता-पिता ने धन के लोभ में उस बालक के हाथ-पैर पकड़ रखे थे।
राजा अपने प्राणों की रक्षा के लिए स्वयं उसका वध करने को उद्यत था और वहाँ देवता के रूप में जो ब्रह्मराक्षस था, वही उसका भक्षक था। जो शरीर नाशवान है, जिसका अंत कड़वा है तथा जो अधिकाधिक जर्जर है, उसके लिए भी उन मूढ़मति वाले लोगों की ऐसी विडंबना देखकर उसे आश्चर्य हुआ। जिन शरीरों में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और शंकर का निवास होता है, वे भी अवश्य नष्ट हो जाते हैं और उसी शरीर को स्थिर बनाए रखने की इन सबमें कैसी विचित्र वासना है! यह बालक उन लोगों की देह-ममता की यह विचित्रता देखकर अचरज में पड़ गया और अपनी अभिलाषा को पूर्ण जानकर प्रसन्न हुआ और इसी आश्चर्य व प्रसन्नता से वह हँस पड़ा था।”
राजा विक्रमादित्य जब ऐसा कहकर चुप हो गए, तब बेताल में अपनी माया का प्रयोग किया और विक्रमादित्य के कंधे से गायब होकर फिर अपनी जगह शिशपा वृक्ष पर चला गया । राजा विक्रमादित्य ने भी कोई देर की और शीघ्रतापूर्वक पुनः betal को लेने के लिए चल पड़ा। यह थी Vikram betal 20vi kahani
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