Vikram Vetal 18vi kahani |विक्रम वेताल कहानी 18 | विक्रम वेताल 18|वेताल पच्चीसी 18 vetal pachchisi 18 story | story 18 |अट्ठारहवाँ बेताल
उस भयानक रात में जब राजा विक्रमादित्य पुनः श्मशान में स्थित सिपा-वृक्ष के पास पहुँचे, तो वहाँ का दृश्य और भी विचित्र था। चिताओं की जलती हुई लपटें, मांसभक्षी भूत-प्रेतों के विकराल स्वरूप और उल्टे लटके हुए प्रेत-शरीरों ने वातावरण को भयावह बना दिया था। लेकिन Vikram Vetal 18vi kahani में राजा, जो अद्वितीय साहस और धैर्य के प्रतीक थे, तनिक भी भयभीत नहीं हुए। पढ़िए विक्रम बेताल पच्चीसी की सभी कहानियां
कौन-सा असली बेताल है। उन्हें संदेह हुआ कि यह सब बेताल का मायाजाल है, जिससे वह समय व्यर्थ गँवा रहे हैं। राजा मन ही मन निश्चय कर चुके थे कि यदि उनका उद्देश्य पूरा नहीं हुआ, तो वे स्वयं को अग्नि में समर्पित कर देंगे, लेकिन उपहास का पात्र नहीं बनेंगे।
राजा के इस अटूट निश्चय से संतुष्ट होकर बेताल ने अपनी माया समाप्त कर दी और अपने वास्तविक स्वरूप में वृक्ष पर दिखाई दिया। राजा ने बिना देर किए उसे कंधे पर उठाया और आगे बढ़े। चलते-चलते बेताल ने पुनः राजा से वार्तालाप प्रारंभ किया और कहा—
“राजन, तुम्हारा धैर्य और संकल्प अद्वितीय है। तुम बिना थके और बिना विचलित हुए अपने उद्देश्य की ओर बढ़ते जा रहे हो। तुम्हारी यात्रा को सहज बनाने के लिए मैं तुम्हें एक और कथा Vikram Vetal 18vi kahani सुनाता हूँ।”
बेताल ने Vikram Vetal 18vi kahani यानि वेताल पच्चीसी 18 सुनना आरंभ किया—
“आर्यावर्त में उज्जयिनी नाम की एक समृद्ध नगरी थी, जो अपनी भव्यता और दिव्यता में भोगवती और अमरावती के बाद श्रेष्ठ मानी जाती थी। यह नगरी भगवान शिव की कृपा से धन-धान्य और पुण्य से परिपूर्ण थी। वहीं चंद्रप्रभ नामक राजा राज्य करता था, जिसके मंत्री देवस्वामी नामक एक बुद्धिमान और समृद्ध ब्राह्मण थे।”
समय बीतने के साथ देवस्वामी को चंद्रस्वामी नाम का एक पुत्र हुआ। उसने ज्ञान प्राप्त किया, लेकिन जवानी में उसे जुए की लत लग गई।
एक दिन चंद्रस्वामी एक बड़े जुआघर में पहुँचा, जहाँ उसने अपना सारा धन गँवा दिया। धीरे-धीरे वह अपने वस्त्र और उधार लिया हुआ धन भी हार गया। जब वह अपना कर्ज चुकाने में असमर्थ रहा, तो जुआघर के मालिक ने उसे बेरहमी से पीटा और उसे मरणासन्न अवस्था में छोड़ दिया।
तीन दिनों तक अचेत पड़े रहने के बाद, जुआरी यह सोचने लगे कि उसे मारकर किसी कुएँ में फेंक देना चाहिए। लेकिन एक वृद्ध जुआरी ने सुझाव दिया कि उसे निर्जन वन में छोड़ दिया जाए, ताकि वे मालिक से झूठ बोलकर इनाम ले सकें। सभी ने यह बात मान ली और चंद्रस्वामी को वहाँ छोड़कर चले गए।
जब चंद्रस्वामी को चेतना आई, तो उसने स्वयं को एक निर्जन वन में पाया। वहाँ उसे एक शिवालय दिखाई दिया, जिसमें उसने आश्रय लिया। उसी समय, एक महाव्रती तपस्वी वहाँ आ गए , जिसका शरीर विभूति से ढका हुआ था और जो स्वयं भगवान शिव के समान प्रतीत हो रहे थे ।
तपस्वी ने चंद्रस्वामी की दुर्दशा देखकर उसे स्नान करने और भोजन ग्रहण करने का सुझाव दिया, लेकिन चंद्रस्वामी ने यह कहकर मना कर दिया कि वह ब्राह्मण है और किसी की भिक्षा नहीं खा सकता। तब तपस्वी ने अपनी सिद्ध विद्या का प्रयोग किया और एक स्वर्णिम नगर उत्पन्न कर दिया, जहाँ सुंदर स्त्रियाँ, दिव्य बगीचे और भव्य महल थे।
सुंदरियों ने चंद्रस्वामी को स्नान कराया, उत्तम वस्त्र पहनाए और दिव्य भोजन कराया। इसके बाद, उसे एक अद्भुत रूपवती स्त्री के पास ले जाया गया, जिस पर चंद्रस्वामी मंत्रमुग्ध हो गया। उसने रात उसी स्त्री के साथ बिताई और अपार सुख का अनुभव किया।
लेकिन सुबह जब उसकी आँखें खुलीं, तो सब कुछ विलीन हो चुका था। वहाँ केवल शिवालय खड़ा था और तपस्वी हँसते हुए खड़ा था।
चंद्रस्वामी उस दिव्य स्त्री की याद में व्याकुल हो उठा। तपस्वी ने उसे सांत्वना दी और कहा कि यदि वह चाहे, तो हर रात उसे वही सुख प्राप्त हो सकता है। धीरे-धीरे चंद्रस्वामी उस मायावी नगर के आकर्षण में पूरी तरह बँध गया।
एक दिन, उसने तपस्वी से प्रार्थना की कि उसे भी वह विद्या सिखाई जाए। तपस्वी ने बताया यह कठिन है यह विद्या जल के भीतर साधना करने से प्राप्त होती है और साधक को भयंकर माया का सामना करना पड़ता है। यदि साधक मोह में फँस गया, तो वह विद्या सिद्ध नहीं होगी और वह मारा जायेगा।
चंद्रस्वामी के हठ के आगे झुककर तपस्वी ने उसे विद्या प्रदान कर दी और नदी में उतरने का निर्देश दिया। चंद्रस्वामी मंत्र जपते हुए नदी की जल में उतर गया , लेकिन माया के प्रभाव में आकर वह अपने इस वर्त्तमान जन्म को भूल गया। उसने स्वयं को किसी अन्य नगर में जन्मा हुआ पाया, जहाँ वह बड़ा हुआ, विवाह किया और पुत्रों की प्राप्ति हुई और सुखभोग किया।
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जब उसके गुरु ने विद्या की शक्ति से उसे चेताया, तो वह पुनः अपने असली उद्देश्य को याद करने लगा। लेकिन तब तक वह माया की दुनिया में इतना रम चुका था कि उसे अग्नि में प्रवेश करने का साहस नहीं हो रहा था। वह सोचने लगा कि यदि उसने अग्नि में प्रवेश किया, तो उसके परिवार का क्या होगा?
लेकिन गुरु की शिक्षाओं पर विश्वास रखते हुए, उसने साहस जुटाया और अग्नि में प्रवेश कर गया। आश्चर्य की बात यह थी कि अग्नि उसे बर्फ के समान ठंडी लगी! उसी क्षण माया समाप्त हो गई और वह नदी से बाहर निकल आया।
जब चंद्रस्वामी ने अपने गुरु को यह बताया, तो गुरु चिंतित हो गए। उन्होंने अपनी विद्या का स्मरण किया, लेकिन वह प्रकट नहीं हुई। तब दोनों को एहसास हुआ कि उनकी विद्या नष्ट हो चुकी है।
Vikram Vetal 18vi kahani vetal pachchisi 18 story कहानी सुनाकर अट्ठारहवाँ बेताल राजा विक्रमादित्य से पूछता—
“राजन, जब चंद्रस्वामी ने सारी विधियाँ सही ढंग से पूरी कीं, तो फिर भी उसकी और उसके गुरु की विद्या नष्ट क्यों हो गई?”
Vikram Vetal 18vi kahani में राजा ने उत्तर दिया—
“जब तक मनुष्य का मन संकल्प और धैर्य से दृढ़ नहीं होता, तब तक उसे किसी भी कठिन कार्य में सफलता नहीं मिलती। चंद्रस्वामी, भले ही सारी क्रियाएँ कर चुका था, लेकिन मोह में फँस गया। वह माया के प्रभाव में डगमगाने लगा, जिससे वह अपने उद्देश्य से भटक गया। इसी कारण, वह विद्या सिद्ध नहीं हो सकी और अपात्र को प्रदान करने के कारण उसके गुरु की भी विद्या लुप्त हो गई।”
राजा का उत्तर सुनते ही बेताल पुनः हँसते हुए अदृश्य हो गया और अपने स्थान पर लौट गया, जिससे राजा को फिर से उसे पकड़ने के लिए लौटना पड़ा।
दोस्तों यह थी Vikram Vetal 18vi kahani ,विक्रम वेताल कहानी 18 या कहिये वेताल पच्चीसी 18 vetal pachchisi 18 story और अट्ठारहवाँ बेताल।
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