Vikram Betal 23vi Kahani
राजा विक्रमादित्य और बेताल की 23वीं रहस्यमयी कहानी, जहां एक अघोरी तपस्वी नया शरीर चुनता है। पढ़ें अद्भुत और ज्ञानवर्धक कथा। Vikram Betal 23vi Kahani एक रहस्य और ज्ञान से भरी अद्भुत लोककथा है, जिसमें राजा विक्रमादित्य और बेताल के बीच गूढ़ संवाद होता है। यह कथा एक हिन्दू अघोरी तांत्रिक तपस्वी की है, जो श्मशान जैसे रहस्यमयी स्थान पर तंत्र साधना और योग विद्या में लीन रहता है। कहानी में आत्मा का मृत शरीर में प्रवेश , योगी द्वारा शव में प्रवेश, और पाशुपत व्रत की रहस्य कथा जैसे तत्व इसे और भी रहस्यमय बनाते हैं।
अगर आप “Vikram Betal Kahani Hindi mein” खोज रहे हैं, तो यह कथा आपके लिए एक रहस्यलोक का द्वार खोलती है Vikram betal 22 vi kahani के बाद अब Vikram Betal Kahani भाग 23 पढ़े-
भूत-प्रेतों से घिरे उस विशाल श्मशान में, राजा विक्रमादित्य एक बार फिर शिशपा वृक्ष के नीचे पहुँचे। बेताल ने भले ही कई रूप बदले, पर राजा ने उसे वृक्ष से उतारा और अपने कंधे पर लादकर खामोशी लिये हुए आगे बढ़ते है।
तब बेताल ने राजा विक्रमादित्य से कहा, “राजन, इस असंभव से कार्य में भी तुम्हारा ऐसा अटल आग्रह है जिसे रोका नहीं जा सकता। अतः, तुम्हारी थकान मिटाने के लिए मैं तुम्हें एक और कथा सुनाता हूँ, ध्यान से सुनो।”
कलिंग देश में स्वर्गपुरी के समान भव्य एक नगरी थी, जहाँ उत्तम आचरण वाले लोग निवास करते थे। उस पर प्रद्युम्न नाम का एक राजा शासन करता था, जो अपने ऐश्वर्य और पराक्रम के लिए विख्यात था। उस नगर के एक छोर पर यज्ञस्थल नाम का एक गाँव था, जिसे राजा प्रद्युम्न ने ब्राह्मणों को दान में दिया था। उसी गाँव में यज्ञसोम नाम का एक वेदज्ञ ब्राह्मण रहता था, जो अत्यंत धनवान था। वह अग्निहोत्री था और अतिथियों का सम्मान करने वाला था।
जब उस ब्राह्मण का यौवन ढल गया, तब सौ-सौ मन्नतों के बाद, उसकी योग्य पत्नी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उत्तम लक्षणों वाला वह बालक अपने पिता के घर में बढ़ने लगा। ब्राह्मणों ने विधिपूर्वक उसका नाम इंद्रसोम रखा। यह बालक, जिसने अपनी विद्या, विनय आदि गुणों से लोगों को वश में कर लिया था, जब सोलह वर्ष का हुआ, तब अचानक ज्वर के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके पिता यज्ञसोम ने स्नेहवश अपनी पत्नी सहित उस मृत पुत्र को आलिंगन में बाँधे रखा और बहुत देर तक उसके शव को दाह-क्रिया के लिए नहीं जाने दिया। Vikram Betal Pchisi की सभी कहानियां पढ़े-
बाद में, वहाँ एकत्रित हुए बड़े-बूढ़ों ने उसे इस प्रकार समझाया, “ब्राह्मण, आप तो भूत और भविष्य को जानने वाले हैं। क्या आप जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर इस संसार की गति नहीं जानते? इस संसार में ऐसे भी राजा थे, जो मनोहर राजमहलों में रहते थे , रत्नजड़ित पलंगों पर बैठे, जहाँ संगीत की झंकार भरी रहती थी, अपने शरीर पर चंदन का लेप करते थे और स्वयं को अमर समझकर उत्तम स्त्रियों से घिरे रहते और सुख भोगते थे। ऐसे महापराक्रमियों को भी काल ने अपना ग्रास बना लिया। ये भी अकेले ही उस श्मशान में पहुँचे जहाँ उनके अनुयायी और प्रेत रो रहे थे और आसपास सियार चीत्कार कर रहे थे। चिता पर सोए उनके शरीर का मांस भी पक्षी, पशुओं और अग्नि ने खा डाला। जब उन्हें भी मरने और नष्ट होने से कोई नहीं बचा सका, तब औरों की तो बात ही क्या है? अतः, हे विद्वान! तुम यह बतलाओ कि इस शव को कलेजे से लगाए रखकर तुम क्या करोगे?”
इस तरह समझाने-बुझाने के बाद, किसी तरह यज्ञसोम ने अपने मृत पुत्र को छोड़ा और शव को नहलाया-धुलाया। तब उसे एक पालकी में रखकर, आँसू बहाते तथा रोते-पीटते हुए वे बंधु-बांधव, जो वहाँ एकत्रित थे, श्मशान की ओर गए।
उस श्मशान में कुटिया बनाकर एक वृद्ध तपस्वी रहता था। यह पाशुपत मत का योगी (अघोरी) था। अधिक आयु और कठोर तपस्या के कारण उसका शरीर अत्यंत कृश हो गया था। जब वह चलता था तो ऐसा लगता जैसे अब गिरा कि तब गिरा। उसका नाम शिव था। उसका सारा शरीर भस्म लगे श्वेत रोमों से भरा हुआ था। उसका पीला जटाजूट बिजली के समान जान पड़ता था। वह स्वयं दूसरे शिव जैसा प्रतीत होता था।
उस तपस्वी के साथ उसकी कुटिया में एक शिष्य भी रहता था। योगी ने कुछ ही देर पहले उसे बुरा-भला कहा था, जिससे वह चिढ़ा हुआ था। वह मूर्ख और दुष्ट था। ध्यान और योग आदि क्रियाओं में लगा रहने के कारण उसे अहंकार हो गया था। वह भीख में मिले हुए अन्न को खाकर निर्वाह करता था। बाहर दूर से आते हुए इस जन-कोलाहल को सुनकर योगी ने उससे कहा, “बाहर जाकर झटपट यह तो देखकर आओ कि इस श्मशान में ऐसा शोरगुल क्यों हो रहा है, जैसा इससे पहले कभी नहीं सुना गया।”
गुरु के ऐसा कहने पर उस शिष्य ने उत्तर दिया, “मैं नहीं जाऊँगा, आप ही जाइए। मेरी भिक्षा की बेला बीती जा रही है।” यह सुनकर योगी बोला, “अरे पेटू, धिक्कार है तुझे। आधा दिन बीत जाने पर यह तेरी कैसी भिक्षा की बेला है?” इस पर उस क्रुद्ध तपस्वी ने कहा, “अरे बुड्ढे, धिक्कार मुझे नहीं, तुझ पर है। आज से न तो मैं तेरा शिष्य हूँ और न तू मेरा गुरु। मैं दूसरी जगह जा रहा हूँ। तू संभाल अपना यह कमंडल।” यह कहकर वह उठा और उस तपस्वी के सम्मुख दंड-कमंडल रखकर वहाँ से चलता बना।
कुछ देर बाद, वह तपस्वी हँसता हुआ अपनी कुटिया से बाहर निकलकर वहाँ पहुँचा जहाँ ब्राह्मण कुमार को दाह-कर्म के लिए लाया गया था और लोग शोकाकुल थे। बुढ़ापे से क्षीण उस योगी ने बालक के शरीर में प्रवेश करने का निश्चय किया। झटपट एकांत में जाकर, पहले तो वह जी खोलकर रोया, फिर अंगों के उचित संचालन के साथ शीघ्रता से नाचने लगा। पल भर बाद, जीवन की इच्छा रखने वाले उस तपस्वी ने अपना शरीर छोड़कर उस ब्राह्मण-पुत्र के शरीर में प्रवेश किया।
बात ही बात में सजाई हुई चिता पर वह ब्राह्मण पुत्र जीवित होकर जम्हाई लेता हुआ उठ बैठा। यह देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए। ब्राह्मण-पुत्र के शरीर में प्रविष्ट उस योगी ने, जो योगों का स्वामी था और अपने तमाम व्रतों को छोड़ना नहीं चाहता था, माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, “मरकर जब मैं परलोक पहुँचा तो भगवान शिव ने मुझे जीवनदान दिया और कहा कि तुम्हें पाशुपत (अघोरी) व्रत लेना है। मुझे इसी समय एकांत में जाकर यह व्रत ग्रहण करना है। यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा तो जीवित नहीं रहूँगा। इसलिए आप सब लोग वापस लौट जाइए, मैं जा रहा हूँ।”
इस प्रकार उस तपस्वी ने, जिसने व्रत का दृढ़ निश्चय कर रखा था, वहाँ एकत्र हुए हर्ष और शोक से विकल सब लोगों को समझा-बुझाकर घर लौटा दिया। तत्पश्चात् उसने उस जगह जाकर, जहाँ उसका पहला शरीर पड़ा हुआ था, वह मृत शरीर एक गड्ढे में डाला और व्रत धारण करके युवा शरीर में वह महायोगी कहीं अन्यत्र चला गया।
राजा विक्रमादित्य को यह कथा सुनाकर बेताल ने उससे पुनः कहा, “राजन, अब तुम मुझे यह बतलाओ कि दूसरे शरीर में प्रवेश करने से पहले वह योगी क्यों रोया और फिर नाचने क्यों लगा? मुझे इस बात को जानने का बड़ा कौतूहल हो रहा है।”
बेताल की यह बात सुनकर, शाप से आशंकित और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा ने मौन त्याग दिया और बेताल से कहा, “हे बेताल! इन बातों से उस तपस्वी का जो अभिप्राय था, वह सुनो। उस बूढ़े तपस्वी ने सोचा, ‘इस बूढ़े शरीर के साथ बहुत दिनों तक मैं सिद्धियों की साधना करता रहा हूँ। अब मैं इस शरीर का त्याग करने जा रहा हूँ जिसे माँ-बाप ने बचपन में लाड़-प्यार से पाला था।’ यही सोचकर वह तपस्वी दुखी हुआ और रोया था, क्योंकि शरीर का मोह छोड़ना बड़ा कठिन काम होता है। इसी प्रकार, वह यह सोचकर प्रसन्नता से नाच उठा था कि अब वह नए शरीर में प्रवेश करेगा और इससे भी अधिक साधना कर सकेगा।”
वह बेताल ने राज विक्रमादित्य का उत्तर सुना जो एकदम सही था , राजा द्वारा बताये गए सही उत्तर को सुनकर वह बेताल राजा के कंधे से उतरकर पुनः उसी शिशपा-वृक्ष पर जाकर लटक गया। इरादे के पक्के राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए और ज्यादा उत्साह के साथ फिर उस शिशपा-वृक्ष की ओर चल दिए।
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