Vikram betal 13th story लावण्यवती और ब्राह्मण हरिस्वामी की कहानी

विक्रम बेताल 13वीं कहानी: राजा विक्रमादित्य ने शिशम्पा वृक्ष से पहले ही की मांति बेताल को नीचे उतारा और उसे अपने कंधे पर डालकर अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। जाते हुए रास्ते में बेताल राजा से बोला “राजन | इस बार तुम्हें एक छोटी-सी कथा सुनाता हूं, सुनो।” वाराणसी नाम की एक नगरी है, जो भगवान शिव की निवास-भूमि है। वहां देवस्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहता था।

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Vikram betal 13th story लावण्यवती और ब्राह्मण हरिस्वामी की कहानी

Vikram betal 13th story में यहाँ का राजा देवस्वामी ब्राह्मण का बहुत सम्मान करता था। देवस्वामी धन-धान्य से बहुत सम्पन्न था। परिवार में सिर्फ तीन ही प्राणी थे, वह स्वयं, उसका पुत्र हरिस्वामी और अत्यंत उत्तम गुणों से युक्त उसकी पत्नी लावण्यवती ।लावण्यवती अपूर्व सुन्दरी थी। ऐसा लगता था जैसे स्वर्ग की अप्सराओं की सुन्दरता को ध्यान रखकर भगवान ने बहुमूल्य रूपवती लावण्यवती को बनाया था। एक बार रात्रि को हरिस्वामी जब अपनी पत्नी के साथ अपने भवन की छत पर सोया हुआ था।

 तभी मदनवेग नाम का एक इच्छाधारी विद्याधर आकाश से विचरण करता हुआ निकला। उसने पति के पास सोई हुई लावण्यवती को देखा, जिसके वस्त्र थोड़े खिसक गए थे और उसके अंगों की सुंदरता झलक रही थी। उसकी सुंदरता देखकर मदनवेग उस पर मोहित हो गया। उस कामांच ने सोई हुई लावण्यवती को उठा लिया और आकाश में उड़ गया।

क्षण भर बाद ही हरिस्वामी जाग उठा और अपनी पत्नी को अपने पास से गायब पाकर वह घबरा गया । वह सोचने लगा- अरे यह क्या हुआ ? लावण्यवती कहाँ गई ? क्या लावण्यवती मुझसे नाराज हो गई है अथवा कहीं छिपकर मेरे मनोभाव जानने के लिए परिहास कर रही है ? ऐसी अनेक शंकाओं से विकल होकर वह रात में महल, अटारी और दूसरी छतों पर उसे खोजने लगा।

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घर और बगीचे में ढूंढने के बाद भी जब लावण्यवती नहीं मिली, तब शोक संतप्त होकर वह विलाप करने लगा “हे चंद्रबिम्ब बदने, हे ज्योत्सना गौरी, हे प्रिये ! समान गुणवाली होने के द्वेष से ही क्या यह रात तुम्हें सहन नहीं कर सकी। तुमने अपनी कांति से चंद्रमा को जीत लिया था; इसी कारण वह डरता हुआ अपनी शीतल किरणों से मुझे सुख पहुंचाया करता था। लेकिन प्रिये, अब तुम्हारे न रहने पर मौका पाकर जलते अंगारों के समान तथा विष बुझे बाणों के सदृश अपनी उन्हीं किरणों से वह चन्द्रमा मुझे घायल कर रहा है।

तभी मदनवेग नाम का एक इच्छाधारी विद्याधर आकाश से विचरण करता हुआ निकला। उसने पति के पास सोई हुई लावण्यवती को देखा, जिसके वस्त्र थोड़े खिसक गए थे और उसके अंगों की सुंदरता झलक रही थी। उसकी सुंदरता देखकर मदनवेग उस पर मोहित हो गया। उस कामांच ने सोई हुई लावण्यवती को उठा लिया और आकाश में उड़ गया।

हरिस्वामी इसी प्रकार विलाप करता रहा। वही कठिनाई से वह रात किसी तरह बीत गई लेकिन उसकी विरह व्यथा नहीं मिटी । सवेरा होने पर सूर्य ने अपनी किरणों से संसार का अंधकार तो नष्ट कर दिया किंतु यह हरिस्वामी के लावण्यवती के खो जाने के अन्धकार को दूर न कर सका। रात बीत गयी चक्रवाक के जोड़े का चीखना बंद हो गया है लेकिन रात बीतने पर भी हरिस्वामी के कंदन की ध्वनि कई गुना बढ़ गई, मानो चकवे के विलाप की शक्ति  उसमें आ गई हो।

Vikram Betal 12 Story Raja Yashketu

स्वजनों के सांत्वना देने पर भी वियोग की आग में जलते हुए उस ब्राह्मण को अपनी प्रियतमा के बिना धैर्य नहीं मिल सका। वह रो-रोकर यह कहता हुआ इधर-उधर घूमने लगा- ‘वह यहां बैठी थी, उसने यहाँ श्रृंगार किया था, यहां उसने स्नान किया था और यहां मेरे साथ विहार किया था।’

हरिस्वामी के इस प्रकार विलाप करने पर उसके मित्र एवं हितैषियों ने उसे समझाया”वह परी तो नहीं है, फिर तुम इतना रो-रोकर क्यों बेहाल हो रहे हो ? तुम जीवित रहोगे तो कभी-न-कभी उसे अवश्य पा लोगे। इसलिए धीरज रखकर अपनी प्रियतमा की खोज करो, उसे ढूंढ़ो, वह अप्राप्य नहीं है। ‘

हरिस्वामी के मित्रों, हितैषियों ने जब उसे इस प्रकार समझाया बुझाया, तब कुछ दिनों बाद, बडी कठिनाई से वह किसी प्रकार धैर्य धारण कर सका। उसने सोचा कि “मैं अपना सब कुछ ब्राह्मणों को दान करके संचित पापों को नष्ट कर दूंगा। पापों के नष्ट हो जाने पर फिर मैं घूमता-फिरता कदाचित् अपनी प्रिया को पा सकूंगा।’

अपनी तत्कालीन स्थिति से ऐसा सोचकर यह उठा और स्नानादि से निवृत हुआ । अगले दिन उसने यज्ञ में ब्राह्मणो को विविध प्रकार का अन्न पान कराया और अपना समस्त धन उन्हें दान कर दिया। और ब्रह्मणत्व-रूपी धन को साथ लेकर वह अपने देश से अपनी प्रिया को पाने की इच्छा लेकर  भ्रमण करने के लिए निकल पड़ा।

भ्रमण के दौरान भयनाक ग्रीष्म ऋतु थी, अत्यंत गर्म हवाएं चल रही थी। धूप से जलाशयों का पानी भी सूख गया था । उस भयंकर गर्मी में धूप और गर्मी से व्याकुल होकर हरिस्वामी एक गांव में घुमता हुआ जा पहुंचा। यहां पद्मनाभ नाम का एक ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। हरिस्वामी भोजन की इच्छा से उसके घर पहुंचा।

उस घर के अंदर उसने बहुत से ब्राह्मणों को भोजन करते देखा। वह दरवाजे को  पकड़कर बिना कुछ बोले बिना हिले डुले खड़ा हो गया। यज्ञ करने वाले उस ब्राह्मण पद्मनाम की पत्नी ने जब उसे ऐसी अवस्था में देखा, तब उसे बड़ी दया आई और कहा यह भूख भी कैसी बलवती होती है। इस व्यक्ति को ही देखो, यह भूख से व्याकुल होकर कैसे द्वार पर सिर झुकाए खड़ा है।

भूख से इसकी इन्द्रियां शिथिल हो गई है, अतः यह निश्चितरूप से भोजन पाने का अधिकारी है।” ऐसा सोचकर वह साध्वी शक्कर के साथ पकी हुई खीर उसके लिए ले आई और उसे नम्रतापूर्वक खीर देती हुई वह बोली-“कहीं किसी वापी (बावली) के तट पर जाकर तुम इसे खा लो। यह जगह तो ब्राह्मणों के भोजन के कारण अब जूठी हो गई है। “

“ऐसा ही करूंगा । ” कहकर हरिस्वामी ने खीर का वह पात्र से लिया, फिर पास ही के बावली के किनारे जाकर उसने उस पात्र को वट-वृक्ष के नीचे रख दिया। उस बावली में हाथ-पैर धोकर, आचमन करके जब हरिस्वामी उस खीर को खाने की जा रहा था कि इसी बीच एक बाज आकर उस वृक्ष पर बैठ गया।

उस बाज ने अपने दोनों पंजों में एक काले सर्प को पकड़ रखा था। बाज जिस सर्प को पकड़कर लाया था, वह मर चुका था किंतु उसके मुख से जहरीली राल टपक रही थी। वह राल-वृक्ष के नीचे रखे उस खीर केपात्र में भी जा गिरी। हरिस्वामी ने यह सब नहीं देखा था,

अतः उसने उस खीर को खा लिया। कुछ ही क्षण बाद वह दिष की वेदना से तड़पने लगा। वह सोचने लगा कि ‘जब विधाता ही प्रतिकूल हो जाता है, तब सब कुछ ही प्रतिकूल हो जाता है। इसीलिए दूध, घी और शक्कर से बनी हुई यह खीर भी मेरे लिए विषैली हो गई।” यह सोचकर गिरता पड़ता वह यज्ञ करने वाले उस ब्राह्मण के घर जा पहुंचा और उसकी पत्नी से बोला- “देवी, तुम्हारी दी हुई खीर से मुझे जहर चढ़ गया है।

अतः कृपा करके किसी ऐसे आदमी को शीघ्र बुलाओ जो जहर उतार सकता हो, अन्यथा तुम्हें ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा।” यह कहते ही हरिस्वामी की आंखें उत्तर गई और उसके प्राण निकल गए। वह साध्वी भाव-विह्वल होकर सिर्फ इतना ही कह पाई- “अरे, यह क्या हुआ ?”

यद्यपि वह स्त्री निर्दोष थी और उसने अतिथि का सत्कार भी किया था, फिर भी यज्ञ करने वाले उस ब्राह्मण ने अतिथि का वध करने का आरोप में क्रुद्ध होकर अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। उस साध्वी ने यद्यपि उचित कार्य किया था, फिर भी उसे झूठा कलंक लगा और उसकी अवमानना हुई इसलिए वह तपस्या करने के लिए तीर्थस्थान को चली गई।

अनन्तर, धर्मराज के सम्मुख इस बात पर बहस हुई कि सांप, बाज और खीर देने वाली उस स्त्री में से ब्राह्मण वध का शाप किसे लगा लेकिन कोई निर्णय नहीं हो सका।

यह कथा सुनाकर बेताल ने विक्रमादित्य से कहा- “राजन, धर्मराज की सभा में तो इस बात का निर्णय न हो सका, अतः अब तुम बताओ कि ब्रह्म-हत्या का पाप किसे लगा ? जानते हुए भी तुम अगर नहीं बताओगे तो तुम्हे पडले वाला ही शाप लगेगा।”

शाप से भयभीत राजा ने जब बेताल की यह बात सुनी तो वह मौन भंग करते हुए बोला- “हे बेताल, सर्प को तो वह पाप लग ही नहीं सकता क्योंकि वह तो स्वयं ही विवश था। उसका शत्रु बाज उसे खाने के लिए जा रहा था। खीर देने वाली उस ब्राह्मणी का भी कोई दोष नहीं था क्योंकि वह धर्म में अनुराग रखती थी और उसने अतिथि-धर्म का पालन करते हुए खीर को निर्दोष समझकर ही हरिस्वामी को खाने के लिए दिया था।

अतः मैं तो उस जड़बुद्धि हरिस्वामी को ही इसका दोषी मानता हूँ, जो खीर को बिना जांच किए, उसका रंग देखे, खा गया था। व्यक्ति को सामने परोसे भोजन की एक नजर जांच तो अवश्य ही करनी चाहिए कि वह कैसा है। इसीलिए तो बुद्धिमान लोग भोजन करने से पहले किसी कुत्ते को टुकड़ा डालकर उसकी परीक्षा करते हैं कि भोजन सामान्य है अथवा जहरीला । अतः मेरे विचार से तो हरिस्वामी ही अपनी मृत्यु का जिम्मेदार है। “

विक्रमादित्य ने जो जवाब दिया वह बिल्कुल सही उत्तर दिया था. अतः बेताल संतुष्ट हुआ कितु राजा के मौन भंग करने के कारण फिर उसकी जीत हुई और वह विक्रमादित्य के कंधे से उतरकर पुनः शिशंपा वृक्ष की ओर उड़ गया। राजा विक्रमादित्य फिर उसे लाने के लिए उस वृक्ष की और चल देता है ।

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